Book review — Raavi Paar by Gulzar

Shafali Jaiswal
3 min readNov 15, 2023

--

इंसानी कहानियां इतनी डरावनी हो सकती है? इंसानी कहानियां ही डरावनी हो सकती है, भूतों - पिशाचों का क्या डर!

शुरुआती चालिस पन्नों को पढने मे मैंने चार दिन लगा दिये. हर दूसरी लाइन, दूसरे लफ्ज़ पर अटक जाती थी. उर्दु के ऐसे अल्फ़ाज़ जो न कभी पढे थे न कभी सूने थे. लेकिन जिस अंदाज़ मे गुलज़ार साहब ने लिखा है खूबसूरत ही सूनाई देते है, अर्थ समझे या ना समझे. लड़खड़ाते अटकते ही सही मुझे किताब का rhythm मिल गया. गुलजा़र साहब की लिखावट है ही ऐसी.

ज़िंदा, मुर्दा, ईन्सान, जानवर - सबके जज़्बात मानों करीब से महसूस किये हैं गुलजा़र ने. बुढापे के साथ आता अकेलापन हो, दंगों की दहशत, मजबूर लडकी की बेबसी हो, पहले प्यार का दर्द, या हो partition के दरमियान रावी पार करने का ख़ौफ़ - आप हर एहसास से गुज़रते हो. कलेजा पसीज जाता है उनके एक से एक रूह कांप देते अफ़साने पढ कर. दिल को दहला दें ये सिर्फ गुलजा़र के कलम से मुमकिन है.

गुलजा़र अपनी कहानियों के किरदारो को इतने अपनेपन, इतनी इन्सानियत से लिखते हैं के उन काल्पनिक किरदारों के बारे मे कुछ ही पन्नों में आत्मियता पैदा हो जाती है. कुछ किस्से उन्होंने खुद की ज़िंदगी से चूनकर इस किताब में पिरोये है. बिमलदा के साथ बिताए उनके आखिरी क्षण और तक़सीम (partition) के दौरान India आए एक परिवार से उनका इत्तेफाकन बना अनूठा रिश्ता - इनका इतना अभिव्यंजक वर्णन पढ कर मेरी आँखें नम हो गई.

कई अफसानों का अंत अपने ही तरीक़े का ख़ौफ़नाक है. इन कहानियों के मायने समझने में बडी देर लगी. अब कईयों का क्या ही हश्र, क्या ही अर्थ निकाले चूंकि गुलजा़र ने readers पर उन अफसानों का moral छोड़ दिया है. समाज के बनाए रिती रिवाज और नियम मे जकड़े किरदार, उनसे जुंझते और उन्हीं में गूँथ कर गुम होते किरदार, इन्ही रिती रिवाज़ो का विरोध करने में असफल हुये और आखिर उन्हीं में जकड़कर उन्हे अपना लिया इसका बेहतरीन उदाहरण "धुआँ", "हाथ पीले कर दो", "हिसाब किताब" जैसी कहानियां दर्शाती है. इन्सानियत को भेद दें ऐसे वाकया जो आपकी सूझबूझ के परे है. लेकिन reality से परे नहीं. गुलजा़र की कहानियां भले ही बसीं है दशकों पहले - कुछ 1940s मे, कुछ 80s मे, Michelangelo से प्रेरित किस्से से लेकर धार्मिक मतभेद के फसानो तक - लेकिन इन सबमें जूडी मुलभुत बात आज भी वही है. हालात आज भी वही है, और बदतर है. जैसे गुलजा़र ने इस किताब में उल्लेख किया है, "आज कल वैसे ही मुल्क की फ़िज़ा ख़राब हो रही थी, हिन्दू कुछ ज़्यादा ही हिन्दू हो गए थे, मुसलमान कुछ ज़्यादा मुसलमान!!"

गुलजा़र के किरदार और किरदारों ने उठाए कदम आपको challenge करते है, सोचने पर मजबूर करते है. नर्म मिजाज गुलजा़र जो media मे दिखाई देते है ज़िन्दगी के दर्दनाक पहलू से ईतने वाकिफ होंगे ये उनके अफसाने ही बयां करते है. उनके किरदार आपको किसी अखबार के खबर की, वास्तविक जीवन की घटना की, या रोजमर्रा मे टकराये कोई भूले बिसरे व्यक्ति की याद ज़रूर दिलायेंगे. शायद राजस्थान की डलिया की विवशता के रूप में, यासीन के संदेह के रूप में, "धुआँ" के चौधरी और उनके इर्द-गिर्द के दरिंदों के रूप में, या चक्कू की छिन गई मासूमियत के रुप मे.

Sign up to discover human stories that deepen your understanding of the world.

Free

Distraction-free reading. No ads.

Organize your knowledge with lists and highlights.

Tell your story. Find your audience.

Membership

Read member-only stories

Support writers you read most

Earn money for your writing

Listen to audio narrations

Read offline with the Medium app

--

--

Shafali Jaiswal
Shafali Jaiswal

Written by Shafali Jaiswal

Banker by profession. Reader by spirit. Exploring the world, one book at a time.

No responses yet

Write a response